दान देना त्याग है, पर त्याग किसका करें? जो देता है, वह लेता है और जो लेता है, वह देता भी है। संसार में ज्ञान अनंत है। ज्ञान का दीपक सदैव जलता रहता है। इसलिए ज्ञान का दान ही सर्वश्रेष्ठ है। संसार में जब तक अशुभ कर्म का बोलबाला रहता है, तब तक न कोई दे सकता है और न कुछ ले सकता है। त्याग भी वही श्रेष्ठ है, जिसमें अहंकार न हो, यदि दान देते समय अहंकार की भावना पैदा हो जाए तो वह दान देना व्यर्थ है। दान वही श्रेष्ठ है, जिससे दूसरे को भी सुख की प्राप्ति हो। सद्भावना से दिए गए दान का सदा अच्छा फल मिलता है।
आहार, औषध, ज्ञान और वसति (वास) का दान इस संसार में सर्वश्रेष्ठ है। दानी व्यक्ति की सुगंध तो चंदन की भांति स्वयं ही फैलती है। दान देने से भी त्याग नहीं होता। जब तक मनुष्य पर-पदार्थों को अपना मान रहा है, वह बहिरात्मा है और तब तक मिथ्यात्व है। इस मिथ्यात्व का त्याग ही उत्तम त्याग है। मिथ्यात्व को त्यागे बिना उद्धार नहीं हो सकता। यदि त्याग शक्ति के अनुसार किया जाए, तभी श्रेयस्कर हो सकता है।
दान की उपयोगिता तभी है, जब वह किसी सुपात्र को दिया जाए। सुपात्र दान बहुत भाग्य से होता है। इस दान (त्याग) से मनुष्य का जन्म सफल हो जाता है। जितना अधिक त्याग तुम धन का करोगे, उतनी ही अधिक धन-संपत्ति तुम्हारे चरण चूमेगी। जिस घर में त्याग की भावना नहीं होती, वह तो श्मशान के समान है।
दान एवं नवधा भक्ति
चार प्रकार के दान को मुनि विद्यानंद ने सर्वश्रेष्ठ माना है। ये हैं-औषधि दान, शास्त्र दान, अभय दान और आहार दान। उन्होंने कहा है कि योग्य पात्र को आहार, औषधि, शास्त्र तथा अभय दान में से जिसकी आवश्यकता हो, उसको उस समय पर उसी प्रकार का दान देना अति उत्तम है, इससे देने
वाले और लेने वाले दोनों को शुभ फल मिलता है।