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कुंभ मेला 2025

खगोल गणनाओं के अनुसार यह मेला मकर संक्रान्ति के दिन प्रारम्भ होता है, जब सूर्य और चन्द्रमा, वृश्चिक राशि में और वृहस्पति, मेष राशि में प्रवेश करते हैं। मकर संक्रान्ति के होने वाले इस योग को “कुंभ स्नान” कहते हैं और इस दिन का विशेष मंगलकारी महत्व है, क्योंकि ऐसा मानना है कि इस दिन पृथ्वी से उच्च लोकों के द्वार खुलते हैं अतः इस दिन स्नान करने से आत्मा उच्च लोकों को सहजता प्राप्त कर पाता है। यहाँ स्नान करना साक्षात् स्वर्ग दर्शन समान है। इसका सनातन धर्म मे बहुत अधिक महत्व है।

वैदिक ग्रंथों के अनुसार ‘कुंभ’ का समान अर्थ “घड़ा, सुराही, बर्तन” है। अत्याधिक इसे पानी के विषय में एवं अमरता (अमृत) के बारे में बताया जाता है। किसी एक स्थान पर मिलने का अर्थ है “मेला”, एक साथ चलना, या फिर सामुदायिक उत्सव में उपस्थित होना। यह शब्द ऋग्वेद जैसे अन्य प्राचीन सनातनी ग्रन्थों में पाया जाता है। इस प्रकार, कुंभ मेले का अर्थ है “अमरत्व का मेला”।

ज्योतिषीय महत्व

इस त्यौहार का श्रेय पारंपरिक रूप से 8वीं शताब्दी के हिंदू दार्शनिक और संत आदि शंकराचार्य को दिया जाता है, ज्योतिषियों के अनुसार कुम्भ का असाधारण महत्व बृहस्पति के कुम्भ राशि में प्रवेश तथा सूर्य के मेष राशि में प्रवेश के साथ जुड़ा है। आध्यात्मिक दृष्टि से कुंभ के काल में ग्रहों की स्थिति एकाग्रता तथा ध्यान साधना के लिए उत्कृष्ट होती है।

पौराणिक कथाएँ

कुम्भ पर्व के आयोजन को लेकर दो-तीन पौराणिक कथाएँ प्रचलित हैं जिनमें से सर्वाधिक मान्य कथा देव-दानवों द्वारा समुद्र मन्थन से प्राप्त अमृत कुम्भ से अमृत बूँदें गिरने को लेकर है। इस कथा के अनुसार महर्षि दुर्वासा के शाप के कारण जब इन्द्र और अन्य देवता कमजोर हो गए तो दैत्यों ने देवताओं पर आक्रमण कर उन्हें परास्त कर दिया। तब सब देवता मिलकर भगवान विष्णु के पास गए और उन्हे सारा वृतान्त सुनाया। तब भगवान विष्णु ने उन्हे दैत्यों के साथ मिलकर क्षीरसागर का मन्थन करके अमृत निकालने की सलाह दी। भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर सम्पूर्ण देवता दैत्यों के साथ सन्धि करके अमृत निकालने के यत्न में लग गए। अमृत कुम्भ के निकलते ही देवताओं के इशारे से इन्द्रपुत्र जयन्त अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। उसके बाद दैत्यगुरु शुक्राचार्य के आदेशानुसार दैत्यों ने अमृत को वापस लेने के लिए जयन्त का पीछा किया और घोर परिश्रम के बाद उन्होंने बीच रास्ते में ही जयन्त को पकड़ा। तत्पश्चात अमृत कलश पर अधिकार जमाने के लिए देव-दानवों में बारह दिन तक अविराम युद्ध होता रहा। इस परस्पर मारकाट के दौरान पृथ्वी के चार स्थानों (प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक) पर कलश से अमृत बूँदें गिरी थीं। उस समय चन्द्रमा ने घट से प्रस्रवण होने से, सूर्य ने घट फूटने से, गुरु ने दैत्यों के अपहरण से एवं शनि ने देवेन्द्र के भय से घट की रक्षा की। कलह शान्त करने के लिए भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर यथाधिकार सबको अमृत बाँटकर पिला दिया। इस प्रकार देव-दानव युद्ध का अन्त किया गया।

अमृत प्राप्ति के लिए देव-दानवों में परस्पर बारह दिन तक निरन्तर युद्ध हुआ था। देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के तुल्य होते हैं। अतएव कुम्भ भी बारह होते हैं। उनमें से चार कुम्भ पृथ्वी पर होते हैं और शेष आठ कुम्भ देवलोक में होते हैं, जिन्हें देवगण ही प्राप्त कर सकते हैं, मनुष्यों की वहाँ पहुँच नहीं है।

जिस समय में चन्द्रादिकों ने कलश की रक्षा की थी, उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चन्द्र-सूर्यादिक ग्रह जब आते हैं, उस समय कुम्भ का योग होता है अर्थात जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चन्द्रमा और बृहस्पति का संयोग होता है, उसी वर्ष, उसी राशि के योग में, जहाँ-जहाँ अमृत बूँद गिरी थी, वहाँ-वहाँ कुम्भ पर्व होता है।

मान्यता अनुसार गंगा नदी में कुंभ के दौरान स्नान करने से जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्ति मिल जाती है; यही उम्मीद लेकर देश विदेश से लाखों श्रद्धालु स्नान के लिए प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन या नासिक पहुँचते हैं।

प्रयागराज
इसमें इलाहाबाद यानी प्रयागराज त्रिवेणी संगम पर पूजा और स्नान किया जाता है, जहाँ पर गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों का मिलन होता है। गंगाजी और यमुनाजी के अस्तित्व की पहचान उनके स्वच्छ और निर्मल हरे रंग से की जाती है। तीसरी नदी, सरस्वती भी पौराणिक है और माना जाता है की यह अदृश्य है।प्रयागराज-इलाहाबाद के कुंभ मेले का महत्व सभी मेलों में सबसे अधिक है।

हरिद्वार
लाखों श्रद्धालु उत्तराखंड के पवित्र शहर हरिद्वार के प्रसिद्ध घाट “हरकी पैड़ी” पर एकत्रित होकर अनुष्ठान स्नान करते हैं। जहाँ गंगाजी पहाड़ों से होकर मैदानी इलाकों में प्रवाहित होती हैं।

हिमालय पर्वत श्रृंखला के शिवालिक पर्वत के नीचे हरिद्वार स्थित है। प्राचीन ग्रंथों में हरिद्वार को तपोवन, मायापुरी, गंगाद्वार और मोक्ष द्वार के नामों से वर्णन किया गया है। हरिद्वार का धार्मिक महत्व विशाल है। यह सनातनियो के लिए एक प्रमुख कुंभ तीर्थस्थान है।

नासिक
नासिक त्र्यंबक कुंभ मेले के नाम से भी जाना जाने वाले कुंभ मेले में पूजा और स्नान त्र्यंबकेश्वर शिव मंदिर और राम कुंड स्थित गोदावरी नदी के तट पर किया जाता है।

भारत में 12 में से एक ज्योतिर्लिंग त्र्यम्बकेश्वर में है जो नासिक से 38 किलोमीटर की दूरी पर है और गोदावरी नदी का उद्गम स्थान भी है। 12 साल में एक बार सिंहस्थ कुम्भ मेला नासिक और त्रयम्बकेश्वर में होता है। ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार नासिक उन चार स्थानों में से एक है, जहाँ अमृत कलश से अमृत की बूंदें गिरी थीं। कुंभ मेले में हज़ारों श्रद्धालु गोदावरी के पवित्र जल में नहा कर अपने अंतर आत्मा की शुद्धि और मोक्ष की प्रार्थना करते हैं। यहाँ महाशिवरात्रि का त्यौहार बहुत धूम धाम से मनाया जाता है।

उज्जैन
शिप्रा नदी के तट पर स्थिर उज्जैन नगरी जो भगवान महाकालेश्वर शिव के स्वयंभू लिंग का निवास स्थान है यहाँ पर आनुष्ठानिक कुंभ स्नान शामिल है। साथ में शिव शंभु महाकाल के भी दर्शन का लाभ भक्तगण को मिलता है।

मध्य प्रदेश की पश्चिमी सीमा पर स्थित उज्जैन का अर्थ है विजय की नगरी। इंदौर से करीब 55 किलोमीटर दूरी पर बसा उज्जैन पवित्र और धार्मिक स्थलों में से एक है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शून्य डिग्री की शुरुवात उज्जैन से होती है। महाभारत के तीसरे पर्व अरण्य पर्व या वन पर्व के अनुसार उज्जैन सप्त पुरी में से एक है।

महाकुंभ 2025 स्नान की तारीखें
अगला महाकुंभ साल 2025 में 13 जनवरी पौष पूर्णिमा से शुरू होगा जो
14 जनवरी को मकर संक्रांति पर शाही स्नान
29 जनवरी को मौनी अमावस्या का शाही स्नान
3 फरवरी को वसंत पंचमी का आखिरी शाही स्नान होगा।

इस दौरान 4 फरवरी को अचला सप्तमी, 12 फरवरी को माघ पूर्णिमा और 26 फरवरी को महाशिवरात्रि पर आखिरी स्नान का पर्व होगा; यानी महाकुंभ पूरे 45 दिनों तक चलेगा, इसमें तीन शाही स्नान 21 दिनों में पूरे होंगे।


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